जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग की सैर (A Visit to Mehrangarh Fort, Jodhpur)

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

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यात्रा के पिछले लेख में आपने मेहरानगढ़ किले के इतिहास के बारे में पढ़ा, टिकट लेने के बाद हम जयपोल द्वार से होते हुए किले के अन्दर प्रवेश कर चुके है ! अब आगे, किले के बाहरी द्वार पर बने तोप के गोलों के निशानों के बारे में थोड़ी जानकारी तो मैं आपको पिछले लेख में दे ही चुका हूँ ! ये गोले उन्नीसवीं सदी के शुरू में हुए एक लम्बे युद्ध के दौरान दागे गए थे ! जब तत्कालीन मारवाड़ शासक की अचानक मृत्यु हो गई, तो रीति के अनुसार उनकी होने वाली मंगेतर उदयपुर की राजकुमारी का विवाह राज्य के नए उत्तराधिकारी महाराजा मानसिंह से होना था ! लेकिन उदयपुर के महाराणा इस रीति से सहमत नहीं थे और उन्होंने राजकुमारी का विवाह जयपुर के महाराजा से तय कर दिया ! इस निर्णय से राठौर वंश की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची, परिणामस्वरूप गुस्से में आकर जयपुर की तरफ बढ़ते विवाह के उपहारों से भरे कारवां पर मानसिंह ने हमला कर दिया और युद्ध प्रारंभ हो गया ! इस युद्ध में मानसिंह पराजित हुए और मेहरानगढ़ लौट आए, अगले 6 महीने तक जयपुर की सेना ने इस किले के चारों तरफ घेरा डाले रखा, स्थिति बहुत गंभीर थी, भोजन और पानी की किल्लत भी हुई ! लेकिन अपने पूरे काल में मेहरानगढ़ के किले पर कोई भी बलपूर्वक जीत हासिल नहीं कर सका !

मेहरानगढ़ के संग्रहालय में रखा एक हाथी-हौदा 

कोई भी आक्रमणकारी सेना ना तो इस किले की दीवार भेद सकी और ना ही इसके द्वार तोड़ सकी ! इस किले के अभेद्य रहने की मुख्य वजह थी किले की बनावट, किले के अधिकतर द्वारों के सामने घुमावदार मोड़ है, और सुरक्षा के लिए द्वारों पर नुकीली कीलें भी लगी है ! अगर कोई आक्रमणकारी इन द्वारों को तोड़ने के लिए हाथियों का प्रयोग भी करता है तो द्वार के सामने इतनी जगह नहीं है कि हाथी जोर लगा सके ! जयपोल द्वार के पास इस समय जहाँ हम खड़े थे वहां हमारी दाईं ओर दूर तक फैला जोधपुर का सबसे पुराना इलाका दिखाई देता है, नीले रंग में नहाए इस इलाके को ब्रहमपुरी के नाम से जाना जाता है ! इसका नाम ब्रहमपुरी उन ब्राह्मणों के नाम पर पड़ा जो राव जोधा की राजसभा के साथ मंडोर से जोधपुर आए ! परंपरा के अनुसार केवल ब्राह्मण ही पवित्र ग्रंथों की व्याख्या कर सकते है, धार्मिक समारोह संपन्न करा सकते है और आध्यात्मिक मार्गदर्शन कर सकते है ! नील से रंगे जाने के कारण उनके घर आसमानी रंग के होते थे, ये रंग ना सिर्फ गर्मियों में ठंडक पहुंचाता है बल्कि कीड़े-मकोड़ों को भी भगाता है ! वर्तमान में तो किसी का घर भी नीले रंग का हो सकता है लेकिन पुराना शहर अभी भी प्राचीन जातियों के आधार पर बंटा है ! वैसे अगर आप चाहे तो पुराने शहर का एक दौरा कर सकते है जो विविधतापूर्ण इलाकों और ख़ास बाजारों से होकर गुजरता है !

यहाँ एक जौहरी बाज़ार है जो केवल आभूषणों के लिए है, एक बाज़ार चाँदी के सामान के लिए और एक कपड़ों के लिए, यहाँ एक ऐसी गली भी है जहाँ विभिन्न प्रकार की सुपारियों की ही दुकानें है ! अगर आप मसालों की खुशबुओं का आनंद लेना चाहते है तो मिर्ची बाज़ार की सनसनाहट में घूम सकते है, यहाँ की दुकानों में हर तरह के मसाले रखे जाते है ! चलिए, आगे बढ़ते है, प्रत्येक राठौर शासक ने अपनी ज़रूरतों के अनुसार मेहरानगढ़ के रूप में बदलाव किया, इसलिए अब इस किले के संस्थापक राव जोधा के समय के बहुत कम ही अवशेष इस दुर्ग में बचे है ! कहते है इस किले के निर्माण के लिये पहाडियों में रहने वाले लोगों को विस्थापित किया गया था। इन्हीं लोगों में एक सन्यासी भी थे "चीरिया नाथजी", जिन्हें पक्षियों का भगवान भी कहा जाता था। जब उन्हें जबरदस्ती पहाड़ो से विस्थापित किया गया तो उन्होंने राव जोधा को शाप दिया कि मेहरानगढ़ को हमेशा पानी की किल्लत का सामना करना पड़ेगा ! मारवाड़ जैसे रेगिस्तान में ऐसे श्राप को हल्के में नहीं लिया जा सकता था, इसलिए देवताओं को खुश करने के लिए स्वेच्छा से एक नर बलि दी गई ! चीरिया नाथजी की सुविधा के लिए भी राव जोधा ने किले में गुफा के पास मंदिर भी बनवाए, जिनका उपयोग सन्यासी ध्यान लगाने के लिए करते थे !


लेकिन फिर भी उनके शाप का असर आज भी हमें इस क्षेत्र में दिखाई देता है, और हर 2-3 साल में एक बार यहाँ पानी की किल्लत हो ही जाती है ! अगले द्वार से अन्दर जाते ही चढ़ाई भरा मार्ग है, थोडा आगे बढ़ने पर बाईं ओर राव जोधा का फलसा भी है, अब ये फलसा क्या है इसकी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है ! लेकिन इतना पता चला कि 1459 में यही किले का मुख्य प्रवेश द्वार था, तब यहाँ लकड़ी और काँटों के अवरोध लगाए गए थे, जिसकी वजह से किले में प्रवेश करना नामुमकिन था ! चीरिया नाथजी के श्राप से बचने के लिए नरबलि भी इसी स्थान पर दी गई थी ! थोडा और आगे बढे तो किले के अंतिम प्रवेश द्वार से थोडा पहले दाईं ओर लाल कालीन पर बैठ शेरवानी और राजस्थानी पगड़ी पहने एक व्यक्ति ढोल बजा रहा था, ढोल की गूँज किले में काफी दूर तक सुनाई दे रही थी ! उसकी वेशभूषा देखकर ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि इसे ट्रस्ट की ओर से ही यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए राजस्थानी संगीत बजाने का कार्य सौंपा गया था, जिसे ये बखूबी निभा रहा था ! फिर एक घुमावदार मोड़ के बाद किले का अंतिम प्रवेश द्वार होने के कारण यहाँ की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण थी, इस द्वार पर भी नुकीली कीलें लगी थी !

किले के अन्दर जाने का मार्ग


किले के अन्दर जाने का मार्ग

आखिरी प्रवेश द्वार के पास संगीत बजाता एक व्यक्ति
द्वार के अन्दर दीवारों पर महाराजा मानसिंह की रानियों और दासियों के हाथों के निशान बने है, पुरानी परंपरा के अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात उनकी विधवाएं राजमहल से अंतिम बार निकलते समय सिन्दूर से रंगे हाथों के निशान दीवारों पर रख जाती थी ! किले के पुस्तकालय में रखी एक हस्तलिपि में इस राजसी शव यात्रा के विषय में लिखा है कि इस यात्रा में सबसे आगे राजपरिवार के पुरुष सदस्य होते थे ! यात्रा में शाही रंगों की पताकाएं लिए दरबार के सेवकों के साथ हाथी और घोड़े भी होते थे, नगाड़ा बजाने वाले लोगों और संगीतकारों के साथ ये यात्रा नगर की गलियों से गुजरती थी ! परिवार के लोग अपनी परंपरा के गौरव का गुणगान करते थे, जबकि रानियाँ अपनी विवाह पौशाक में सुसज्जित पालकी में बैठ रास्ते में पड़ने वाले मंदिरों में अपने स्वर्ण आभूषण दान करती और वैदिक पाठों का उच्चारण करती हुई भिक्षा देती जाती थी ! अंत में सती प्रथा के अनुसार हाथों में गीता और रुद्राक्ष की माला लिए वे अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठ जाती थी ! उनकी धारणा थी कि आग की लपटों के साथ उनका अपने पति से दिव्य मिलन होगा ! आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि जोधपुर में ऐसी अंतिम शवयात्रा 1843 में निकली थी ! यहाँ से थोडा आगे बढ़ने पर हमारी बाईं ओर मटके के आकार के दो बड़े-2 ताम्बे के पात्र रखे थे, मुझे इन पात्रों से सम्बंधित वहां कोई जानकारी नहीं मिली ! 
प्रवेश द्वार के पास राज परिवार की महिलाओं के हाथों के निशान

प्रवेश द्वार के पास रखा एक बड़ा कलश
यहाँ से आगे बड़े तो हम एक गलियारे में पहुँच गए, यहाँ से सामने थोड़ी दूरी पर कुछ सीढियाँ दिखाई दे रही थी लेकिन ये महल से बाहर आने का मार्ग था ! महल के अन्दर जाने का मार्ग हमारी दाईं ओर दिखाई दे रही इमारत में ही था ! प्रवेश द्वार पर अपना टिकट दिखाकर सीढ़ियों से होते हुए हम महल में दाखिल हुए, सीढियाँ ख़त्म होते ही सामने एक खुला बरामदा है, जिसके एक किनारे पर संगमरमर की बनी एक चौकी रखी थी, इसे श्रृंगार चौकी कहते है ! पिछले 500 वर्षों से इसी चौकी पर राठौर राजाओं का राजतिलक होता आया है, पगड़ी गाँव के ठाकुर ही राजतिलक करते है ! इन्हें ये सम्मान इसलिए प्राप्त हुआ क्योंकि ये राव जोधा के बड़े भाई के वंशज है और इन्होनें राव जोधा की खातिर राज सिंहासन का त्याग कर दिया ! राजतिलक के समय मन्त्रों का उच्चारण होता है और कई तोपों की सलामी दी जाती है ! ठाकुर अपनी तलवार से अंगूठे को चीर कर अपने रक्त से होने वाले राजा को तिलक लगाते है ! इस कार्यक्रम में उपस्थित लोग शपथ लेते हुए राजा को पारंपरिक भेंट अर्पण करते है, इस तरह वंश के मुखिया की निरंतरता को फिर से प्रतिष्ठित किया जाता है ! मेहरानगढ़ में पिछला राजतिलक 12 मई 1952 को हुआ था जब महाराजा गज सिंह द्वितीय का राजतिलक संपन्न हुआ था ! अपने पिता की विमान दुर्घटना में हुई मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र 4 वर्ष थी और इसी आयु में उनका राजतिलक हुआ !


महल के प्रवेश द्वार के पास से लिया एक चित्र

श्रृंगार चौकी के पास बरामदे का एक चित्र

श्रृंगार चौकी का एक दृश्य

श्रृंगार चौकी के पास से दिखाई देता महल का एक दृश्य
कहते है राजतिलक के बाद महाराजा गज सिंह द्वितीय गरीबों से एक हाथ से भेंटें स्वीकार करते गए और दूसरे हाथ से लौटाते गए, ये देखकर सभा में मौजूद सभी लोगों को अंदाजा हो गया था कि बड़े होकर ये महाराज एक आदर्श राजा बनेंगे ! महाराजा गज सिंह ने आगे चलकर मेहरानगढ़ में स्थित इस ट्रस्ट की स्थापना की ताकि इसके माध्यम से लोग उनके वंश की परंपरा को जान सके ! इस समय हम जिस बरामदे में खड़े थे वो तीन तरफ से महल की इमारतों से घिरा हुआ था, जिनकी बाहरी दीवारों पर सुन्दर कारीगरी की गई है ! राजस्थानी वास्तुकला से निर्मित ये जालियां झरोखों का भी काम करती थी इनमें से महल की औरतें नीचे बरामदे में होने वाले उत्सव या अन्य अवसरों पर आसानी से देख सकती थी और गर्मियों के दिनों में इन जालियों में से हवा अन्दर जाती थी ! कुछ देर बरामदे में खड़े होकर आस-पास की फोटो खींचने के बाद अब संग्रहालय देखने की बारी थी !

अब हम "संग्रहालय" में प्रवेश कर रहे है जिसके पहले कक्ष में राजघराने की सबसे कीमती वस्तुओं में शुमार हाथियों पर रखे जाने वाले "हौदों" का अनूठा संग्रह है ! हौदे के बारे में अधिकतर लोग तो जानते ही होंगे, लेकिन जो नहीं जानते उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि हौदा लकड़ी का बना एक प्रकार का आसन होता है जिसे हाथी की पीठ पर बाँधा जाता है ! शाही हौदों पर सोने और चाँदी की परतें भी चढ़ाई जाती है, ऐसे हौदों में राजा अपनी रानियों संग भ्रमण पर जाया करते थे ! कुछ हौदे विशेष रूप से राजा के लिए तैयार किये जाते थे जिनके अगले भाग में राजा के बैठने की जगह होती है और पिछला भाग अपेक्षाकृत थोडा छोटा होता है जिसमें राजा का अंगरक्षक बैठता है ! राजा के बचाव के लिए हौदे में ऊपर की ओर उठी हुई धातु की एक परत भी होती है ! इस संग्रहालय में हाथी हौदों के सर्वश्रेष्ठ नमूने रखे गए है जो पूरे भारतवर्ष में अपनी तरह का अद्भुत संग्रह है ! अलग-2 आकार और मौको के हिसाब से बनाए गए हौदे आपको यहाँ दिखाई देंगे, कुछ हौदे लकड़ी के बने है तो कुछ पर सजावट के लिए शीशे और सोने-चाँदी की सुन्दर कारीगरी की गई है ! हर हौदा अपने आप में अनोखा है और उसकी अपनी अलग विशेषता है !



हाथी पर रखा जाने वाला एक हौदा 

हौदे पर रानी के साथ बैठ कर भ्रमण करते राजा 

ये हौदा शाहजहाँ ने महाराज जसवंत सिंह को उपहार स्वरुप दिया था 

फूल-पत्तियों और लताओं की कारीगरी से सजा एक हौदा

शीशे से सजा और छतरी लगा एक हौदा 
यहाँ एक अद्भुत और अमूल्य चाँदी का हौदा भी है जिसे मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने महाराजा जसवंत सिंह को 18 दिसंबर 1657 को सम्मानित करने के लिए उपहार स्वरुप दिया था ! शाहजहाँ एक राठौर राजकुमारी के पुत्र थे और जोधपुर के साथ अपने सम्बंधो को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे, चलिए, आगे बढ़ने से पहले आपको मुगलों और राजपूतों के सम्बन्ध के बारे में भी थोड़ी जानकारी दे देता हूँ ! मध्य एशिया से आए बाबर ने 1526 में भारतवर्ष में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी, लेकिन तीसरे मुग़ल शासक अकबर ने इस राजवंश को अहम् बनाया ! केवल 13 वर्ष की आयु में अकबर गद्दी पर बैठे, और अपनी किशोरावस्था में ही प्रभुत्व की पुरानी इस्लामिक परंपरा को बदल दिया ! सेना में नया जोश भरने के साथ ही अकबर ने सभी धर्मो के प्रति अपना दृष्टिकोण भी बदला, मुग़ल सम्राट की सबसे बड़ी चुनौती राजस्थान के स्वतंत्र राजपूतों का विश्वास जीतना था ! इसके लिए अकबर ने लड़ाई और समझौते की दोहरी नीति अपनाई, और इस रणनीति का महत्वपूर्ण पक्ष था शादी-विवाह के माध्यम से संधि करना ! अकबर ने खुद कई राजपूत राजकुमारियों से शादी की, इसी कारण भारतवर्ष के कई कट्टर हिन्दू राजपूत वंशों के साथ उनके ठोस रिश्ते स्थापित हुए, जो आगे चलकर उनके साम्राज्य के आधार स्तम्भ बने !
सिंहासन लगा एक हौदा


एक ढका हुआ हौदा
परन्तु इन मजबूत संबंधो के बावजूद राजपूत वंश की पवित्रता के साथ कभी समझौता नहीं किया गया, किसी भी राजपूत राजकुमार ने मुग़ल शहजादी को विवाह के योग्य नहीं समझा ! हौदे कक्ष से निकलकर अब हम "पालकी खाने" में प्रवेश कर चुके है, इसे पालकी गलियारा भी कहा जाता है यहाँ तरह-2 की पालकियां रखी हुई है ! पालकियां एक समय में राज परिवार की महिलाओं की यात्रा का प्रमुख साधन थी ! पालकी उठाने वाले लोग मोटे-2 डंडों का आधार लेकर एक साथ गुनगुनाते हुए चलते थे, एक साथ उठते उनके क़दमों की लय आरामदायक यात्रा सुनिश्चित करती थी ! पुरुष खुली पालकी इस्तेमाल करते थे और महिलाओं के लिए बंद परदे वाली पालकी प्रयोग में लाई जाती थी ! ये पर्दा प्रथा का ही एक रूप था जो हजार वर्ष से भी पहले उत्तर भारत में हुए लगातार इस्लामिक आक्रमण के कारण विकसित हुआ ! पर्दा प्रथा स्त्रियों को अजनबियों की कामुक दृष्टि से सुरक्षित रखती थी ! बेंत और शीशे से बनी सुन्दर टोकरी जैसी दिखने वाली आधुनिक पालकी से जुडी एक दिलचस्प कहानी है, ये वर्तमान महाराजा की दादी की कहानी है ! 1925 में वो पहली राजपूत रानी थी जिन्होनें लन्दन की यात्रा की, ये पालकी उनको परदे से ढकी हुई अपनी रोल्स-रोयस गाडी तक आने-जाने के लिए इस्तेमाल होती थी !




पालकी खाने में रखी एक पालकी
मोरों की आकृति से सजी एक पालकी
एक बंद पालकी जो खासकर महिलाओं के लिए बनाई गई थी
उनका नियमपूर्वक पर्दा प्रथा का पालन करना लन्दन के प्रिंस के लिए कौतूहल का विषय बन गया, हर कोई उनकी एक झलक पाना चाहता था ! लेकिन उन्हें मिली, कार से उतरती हुई महारानी की एड़ी की एक तस्वीर, लन्दन के अखबारों ने तुरंत इस तस्वीर को अपने अखबार की सुर्ख़ियों में छाप दिया ! इस बात से जोधपुर की पार्टी इतनी उत्तेजित हुई कि इस तस्वीर के भारत पहुँचने से पहले ही उन्होंने इस अखबार की सारी प्रतियाँ खरीद ली ! वाकई, बड़ी दिलचस्प कहानी है, और आखिर हो भी क्यों ना, ये जोधपुर के राज घराने के सम्मान का विषय था ! पालकी गलियारे से बाहर आने के बाद बरामदे में ही सामने एक छोटे से खुले कक्ष में प्रदर्शनी के लिए कई प्रकार के हुक्के रखे हुए थे ! इन हुक्कों में सुगन्धित तम्बाकू डालकर प्रयोग में लाया जाता था, शाही घराने में इस प्रकार के हुक्कों का काफी चलन था ! हुक्के की तरह अफीम भी राजपूत समाज के रहन-सहन का अभिन्न अंग रहे है, अफीम को लकड़ी के कटोरे में कूटकर बारीक कपडे से छाना जाता है उसके बाद इसे कटोरे में लगी टूटी से उड़ेल कर चाय की तरह पिया जाता है ! राजपूत योद्धा युद्ध में जाने से पहले काफी मात्रा में अफीम का सेवन करते थे, इससे उनके मन का भय कम हो जाता था और वो वीरता से युद्धभूमि में लड़ते थे !


ऐसे हुक्के उस समय काफी चलन में थे 


श्रृंगार चौकी के पास वाले बरामदे से लिया एक चित्र
युद्ध में घायल होने पर अफीम का सेवन दर्द तो कम करता ही था, रक्त के बहाव को भी रोक देता था, गैरकानूनी होने के बावजूद आज भी राजस्थान के कई इलाकों में अफीम का सेवन बड़े स्तर पर किया जाता है ! कुछ ख़ास अवसरों मसलन जन्मोत्सव, खानदानी दुश्मनी ख़त्म करने, और श्राद के अवसर पर भी अफीम का सेवन किया जाता है ! राजस्थान के कई हिस्सों में शादियों के दौरान दुल्हा और दुल्हन के परिवार के लोग आपसी रिश्ते मजबूत करने के लिए भी अफीम का सेवन करते है, अगर देखा जाए तो यहाँ अफीम और मेहमान-नवाजी साथ-2 चलती है ! हुक्कों के कक्ष के बगल में ही एक तस्वीर स्टूडियो था, जहाँ आप राजा-रानी की तरह फोटो खिंचवा सकते है, इस स्टूडियो में राजा-रानी के अलग-2 परिधानों में लोहे के कई फ्रेम बनाए गए है इन फ्रेमों में गर्दन नहीं है ! आपको बस इस फ्रेम के पीछे जाकर खड़ा होना है, गर्दन आपकी और बाकि ये फ्रेम, थोडा बहुत कारीगरी ये फोटो स्टूडियों वाले कंप्यूटर के माध्यम से कर देते है ! स्टूडियो वाला शायद 100 रूपए प्रति फोटो ले रहा था, हमारा इन परिधानों में फोटो खिंचवाने का मन नहीं था, और खुद से फोटो खींचने पर यहाँ पाबन्दी थी इसलिए हम बिना समय गंवाए स्टूडियो से बाहर आ गए ! चलिए, इस लेख में फिल्हाल इतना ही, यात्रा के अगले लेख में आपको दौलतखाने और मेहरानगढ़ के महलों की सैर करवाई जाएगी !

क्यों जाएँ (Why to go Jodhpur): अगर आपको ऐतिहासिक इमारतें और किले देखना अच्छा लगता है तो निश्चित तौर पर राजस्थान में जोधपुर का रुख कर सकते है ! 

कब जाएँ (Best time to go Jodhpur
): जोधपुर जाने के लिए नवम्बर से फरवरी का महीना सबसे उत्तम है इस समय उत्तर भारत में तो कड़ाके की ठण्ड और बर्फ़बारी हो रही होती है लेकिन राजस्थान का मौसम बढ़िया रहता है ! इसलिए अधिकतर सैलानी राजस्थान का ही रुख करते है, गर्मी के मौसम में तो यहाँ बुरा हाल रहता है !

कैसे जाएँ (How to reach 
Jodhpur): जोधपुर देश के अलग-2 शहरों से रेल और सड़क मार्ग से जुड़ा है, देश की राजधानी दिल्ली से इसकी दूरी 620 किलोमीटर है जिसे आप ट्रेन में सवार होकर रात भर में तय कर सकते है ! मंडोर एक्सप्रेस रोजाना पुरानी दिल्ली से रात 9 बजे चलकर सुबह 8 बजे जोधपुर उतार देती है ! अगर आप सड़क मार्ग से आना चाहे तो उसके लिए भी देश के अलग-2 शहरों से बसें चलती है, आप निजी गाडी से भी जोधपुर जा सकते है ! 


कहाँ रुके (Where to stay near 
Jodhpur): जोधपुर में रुकने के लिए कई विकल्प है, यहाँ 600 रूपए से शुरू होकर 3000 रूपए तक के होटल आपको मिल जायेंगे ! आप अपनी सुविधा अनुसार होटल चुन सकते है ! खाने-पीने की सुविधा भी हर होटल में मिल जाती है, आप अपने स्वादानुसार भोजन ले सकते है !


क्या देखें (Places to see near Jodhpur): जोधपुर में देखने के लिए बहुत जगहें है जिसमें मेहरानगढ़ किला, जसवंत थड़ा, उन्मेद भवन, मंडोर 
उद्यान, बालसमंद झील, कायलाना झील, क्लॉक टावर और यहाँ के बाज़ार प्रमुख है ! त्रिपोलिया बाज़ार यहाँ के मुख्य बाजारों में से एक है, जोधपुर लाख के कड़ों के लिए जाना जाता है इसलिए अगर आप यहाँ घूमने आये है तो अपने परिवार की महिलाओं के लिए ये कड़े ले जाना ना भूलें !

अगले भाग में जारी...

जोधपुर यात्रा
  1. दिल्ली से जोधपुर की ट्रेन यात्रा (A Train Journey from Delhi to Jodhpur)
  2. जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग का इतिहास (History of Mehrangarh Fort, Jodhpur)
  3. जोधपुर के मेहरानगढ़ दुर्ग की सैर (A Visit to Mehrangarh Fort, Jodhpur)
  4. मेहरानगढ़ दुर्ग के महल (A Visit to Palaces of Mehrangarh Fort, Jodhpur)
  5. मारवाड़ का ताजमहल - जसवंत थड़ा (Jaswant Thada, A Monument of Rajpoot Kings)
  6. जोधपुर का उम्मेद भवन (Umaid Bhawan Palace, Jodhpur)
  7. रावण की ससुराल और मारवाड़ की पूर्व राजधानी है मण्डोर (Mandor, the Old Capital of Marwar)
  8. जोधपुर की बालसमंद और कायलाना झील (Balasmand and Kaylana Lake of Jodhpur)
  9. जोधपुर का क्लॉक टावर और कुछ प्रसिद्द मंदिर (Temples and Clock Tower of Jodhpur)
Pradeep Chauhan

घूमने का शौक आख़िर किसे नहीं होता, अक्सर लोग छुट्टियाँ मिलते ही कहीं ना कहीं घूमने जाने का विचार बनाने लगते है ! पर कुछ लोग समय के अभाव में तो कुछ लोग जानकारी के अभाव में बहुत सी अनछूई जगहें देखने से वंचित रह जाते है ! एक बार घूमते हुए ऐसे ही मन में विचार आया कि क्यूँ ना मैं अपने यात्रा अनुभव लोगों से साझा करूँ ! बस उसी दिन से अपने यात्रा विवरण को शब्दों के माध्यम से सहेजने में लगा हूँ ! घूमने जाने की इच्छा तो हमेशा रहती है, इसलिए अपनी व्यस्त ज़िंदगी से जैसे भी बन पड़ता है थोड़ा समय निकाल कर कहीं घूमने चला जाता हूँ ! फिलहाल मैं गुड़गाँव में एक निजी कंपनी में कार्यरत हूँ !

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