कालाटोप के जंगलों में दोस्तों संग बिताया एक दिन (A Walk in Kalatop Wildlife Sanctuary)

सोमवार, 16 जुलाई 2012 

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यात्रा के पिछले लेख में आपने खाज़ियार के बारे में पढ़ा, अब आगे, आज डलहौज़ी में हमारा आखिरी दिन था, कहने को तो हम पिछले दो दिनों से लगातार डलहौज़ी में घूम रहे थे, पर फिर भी अभी तक हम यहाँ की सभी जगहें नहीं घूम पाए थे ! अभी भी डलहौज़ी और इसके आस-पास घूमने के लिए काफी जगहें बाकी थी ! हमने मन ही मन सोचा कि आज के दिन जितना घूम सके उतना घूमेंगे, और जो रह जायेगा वो अगली बार डलहौज़ी आने पर घूम लेंगे ! सभी लोग सुबह की दिनचर्या में लगे हुए थे, नहा-धोकर तैयार हुए, अपनी ज़रूरत का सामान लिया, और फिर से गाँधी चौक की तरफ अपनी बस के इंतज़ार में चल दिए ! आज हम कालाटोप वाइल्डलाइफ सेंचुरी जा रहे थे, और यहाँ जाने के लिए भी बस गाँधी चौक से होकर ही जाती है ! अपना तो नियम है कि अगर पहाड़ों पर कहीं दूर घूमने जाना हो तो अपनी यात्रा की शुरुआत सुबह जल्दी कर लो, ताकि आपके पास घूमने का पर्याप्त समय रहे ! इस तरह अगर आप रास्ते में कहीं प्रकृति के नजारों का आनंद लेने के लिए थोड़ी देर रुकना चाहे, तो भी आपको समय की कमी ना महसूस हो ! 

hotel bhandari
अपने होटल की छत पर शशांक और मैं (A view from our Hotel Terrace, Dalhousie)
एक बार यात्रा के दौरान हम लोगों ने सुबह के नाश्ते के चक्कर में होटल से निकलने में देरी कर दी थी, और इस वजह से हमें वापसी में समय की कमी के चलते काफी परेशानी का सामना उठाना पड़ा था ! बस तभी से ये निश्चय कर लिया कि ऐसी लापरवाही आगे से कभी नहीं करेंगे ! सुबह जल्दी निकलने का एक फ़ायदा तो ये भी है कि सुबह का मौसम ठंडा होने से आप पहाड़ों पर चढ़ाई आसानी से कर सकते है, धूप निकलने के बाद तो चलने में परेशानी ही होती है ! मैं तो पहाड़ों पर जाते हुए अपने साथ बिस्कुट, चाकलेट और पानी रख लेता हूँ ताकि ज़रूरत पड़ने पर अपनी भूख-प्यास मिटा सकूँ ! थोड़ा-2 खाते रहने से आपको नियमित ऊर्जा मिलती रहती है, और ज़्यादा थकान महसूस नहीं होती ! पहाड़ों पर चढ़ाई करते हुए शरीर से काफी पसीना निकलता है, और इससे आपके शरीर में पानी की कमी हो सकती है, इस कमी को पूरा करने के लिए थोड़ी-2 देर में पानी ज़रूर पीते रहना चाहिए ! गाँधी चौक पहुँच कर हमने रास्ते में खाने-पीने के लिए थोड़ा सामान खरीद लिया, और बस का इंतज़ार करने लगे ! 

थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद ही हमारी बस आ गई, ये वही बस थी जिस से हम कल खजियार गए थे ! अन्य यात्रियों की तरह हम चारों भी बस में सवार हो गए, आज इस बस में कल की अपेक्षा भीड़ थोड़ी कम थी ! गाँधी चौक से कालाटोप की दूरी मात्र 9-10 किलोमीटर है, जिसे तय करने में हमारी बस को लगभग पौना घंटा लग गया ! कालाटोप में बस से नीचे उतरते ही सामने एक बोर्ड दिखाई दिया, जिस पर कालाटोप वाइल्डलाइफ सेंचुरी की जानकारी दी गई थी ! ज़रूरी जानकारी लेने के बाद ही हम लोग आस-पास का जायजा लेने लगे ताकि सुबह का नाश्ता किया जा सके ! कालाटोप के बस स्टॉप के पास से आपके बाईं ओर तो कालाटोप वाइल्डलाइफ सेंचुरी है जबकि दाईं ओर एक रास्ता डायन कुंड तक जाता है ! बस स्टॉप से थोडा और आगे बढे तो हमें कुछ दुकानें दिखाई दी, जहाँ बैठ कर हमने सुबह का नाश्ता किया, और कुछ सामान रास्ते के लिए भी रखवा लिया ! बातचीत के दौरान ही स्थानीय लोगों से मालूम हुआ कि कालाटोप सेंचुरी में अन्दर घुमाने के लिए गाइड भी मिलते हैं, पर हमने सोचा कि ऐसे जॅंगल में भी अगर गाइड के साथ घूमे तो क्या घूमे ! 

ऐसी जगहों पर असली मजा तो खुद से ही रास्ता ढूँढ कर आगे बढ़ने में है ! इसलिए हमने गाइड के साथ घूमने जाने का सोचा भी नहीं, हाँ ज़रूरत के हिसाब से स्थानीय लोगों से आवश्यक जानकारी ज़रूर ले ली, और फिर डिस्कवरी चैनल पर इतने प्रोग्राम देख चुके है कि मन में बिना गाइड के घूमने की इच्छा प्रबल थी ! आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इस सेंचुरी में अन्दर जाने के दो रास्ते है, पहला रास्ता तो पक्की सड़क का बना हुआ है, जो लोग यहाँ गाडी से आते है, वो इसी रास्ते का इस्तेमाल करते है, और दूसरा रास्ता पतली पगडंडी है जो सड़क वाले रास्ते के बिलकुल पीछे है, इस रास्ते का इस्तेमाल स्थानीय लोग ही करते है ! मतलब सेंचुरी के अन्दर जाने वाली सड़क के बाईं तरफ घने जंगलों से घिरी पहाड़ी है, और उस पहाड़ी के पीछे पैदल जाने वाला रास्ता है, वैसे सड़क के दाईं तरफ भी घने जंगल है, पर पहाड़ी नहीं ! जो लोग यहाँ गाडी से घूमने आना चाहते है, वो या तो अपनी गाडी ला सकते है या फिर गाँधी चौक से यहाँ के लिए टैक्सी किराए पर ले सकते है ! 

जंगल में गाड़ी लेकर जाने के लिए भी आपको यहाँ सेंचुरी के प्रवेश द्वार पर कुछ शुल्क चुकाना होता है ! ये पगडंडी वाला रास्ता घने जंगलों के बीच से जाता है, और इस रास्ते पर गाडी नहीं जा सकती ! अगर आप कभी इस रास्ते से अन्दर जाना चाहें तो आपको पैदल ही जाना होगा ! हम लोग तो इसी रास्ते से अन्दर जाने वाले थे, पर जैसे ही हम लोग उस रास्ते पर आगे बढे, कुछ स्थानीय बच्चे जोर-2 से चिल्लाने लगे, वहां मत जाओ, अन्दर जंगल में भालू है ! पर हम जानते हैं कि अक्सर लोग अपने बच्चों को जंगली जानवरों की ऐसी झूठी कहानियाँ सुना देते है, ताकि बच्चे जंगल में ना जाए ! हम उन बच्चों की बातों पर ध्यान दिए बिना ही आगे बढ़ गए ! ये रास्ता शुरुआत में तो थोडा खुला, पर बहुत ही गन्दा था, मगर आगे बढ़ने पर वो रास्ता संकरा हो गया ! हम लोगों ने जंगल में से ही मजबूत लाठीनुमा लकड़ियाँ ले ली, ताकि अगर कोई जंगली जानवर मिले तो हम अपना बचाव कर सके ! इस समय हम जिस रास्ते पर चल रहे थे उसके दाईं तरफ तो ऊँचे पेड़ों से घिरी पहाड़ी थी और बाईं तरफ घने पेड़ों से घिरी गहरी खाई थी, और इस खाई में नीचे गिरने का मतलब था मौत ! 

इसलिए हम बहुत ही संभल कर आगे बढ़ रहे थे, और अपने चारों तरफ नज़र भी रखे हुए थे ! एक टेलीविज़न प्रोग्राम में देखा था कि जॅंगल में पैदल चलते हुए अपने सिर पर पीछे की ओर चश्मा लगा लेना चाहिए ! ऐसा करने से आप जंगली जानवरों को भ्रमित कर सकते हो, अगर कोई जानवर आपके पीछे हो तो आपके चश्मों को देख कर उसे लगेगा कि आप की नज़र उस पर है ! पता नहीं ये तकनीक कितनी कामयाब है पर फिर भी चश्में तो हमने लगा ही लिए ! ऐसे सफ़र पर आपसी सामंजस्य बहुत ज़रूरी है इसलिए हम लोगों ने आपस में ही तय कर लिया था, कि जो आगे चलेगा वो सिर्फ आगे के रास्ते पर ध्यान देगा, बीच में चलने वाले दोनों लोग दाएँ-बाएँ नज़र रखेंगे, और सबसे पीछे चलने वाला पीछे के रास्ते पर निगाह रखते हुए आगे बढेगा ! इस तरह हम अपने आपको चारों तरफ से सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़ रहे थे ! जिस रास्ते पर हम जा रहे थे वो घने जंगलों के बीच में से था, और वहां एक दम सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे-2 हम आगे बढ़ रहे थे घने कोहरे के कारण अँधेरा भी बढ़ता ही जा रहा था ! 

एक जगह तो ऐसी भी आई जहाँ हमें लगा कि रास्ता ख़त्म हो गया है, पर रास्ते के उस अंतिम किनारे को दूसरे किनारे से बड़े-2 टूटे हुए पेड़ों को डालकर जोड़ा गया था, और पेड़ों के उस पुल के नीचे गहरी खाई थी ! मतलब हमें आगे बढ़ने के लिए लकड़ी के उस पुल को पार करना था, जो थोडा जोखिम भरा काम था, पर थोडा जोखिम लिए बिना पहाड़ों पर घुमक्कड़ी का मजा ही कहाँ है ? इस लकड़ी के पुल को पार करके थोड़ी दूर जाकर हमें फिर से एक पगडंडी मिल गई, हम सब बड़ी सावधानी से जंगल में आगे बढ़ रहे थे ! रास्ते में रुक-2 कर अजीब सी आवाज़ें आ रही थी, हम लोग भी गुनगुनाते हुए चल रहे थे ताकि हमारी आवाज़ सुन कर कोई जंगली जानवर हमारे आस-पास ना आ धमके ! अचानक ही हमें घने जंगल के बीच सन्नाटे में किसी औरत के गाना-गाने की आवाज़ सुनाई दी, जंगल में तो हल्की सी आवाज़ भी दूर तक सुनाई देती है ! मन में अचानक ही कई तरह के विचार आने लगे कि इस जंगल में कहीं कोई भूत-प्रेत का साया तो नहीं, मन में थोडा डर भी था, पर फिर भी हमने हिम्मत का साथ नहीं छोड़ा ! 

हम लोगों ने शांत खड़े होकर जानने की कोशिश की कि आवाज़ किस तरफ से आ रही थी, इधर-उधर देखने पर पता चला कि आवाज़ हमारे बाईं तरफ नीचे खाई से आ रही थी ! नीचे झाँक कर देखा तो हमें दो औरतें टहलती हुई दिखाई दी, हम सोचने लगे कि इस घने जंगल में ये औरतें गाना गाते हुए क्या कर रही है ! अभी हम सोच ही रहे थे कि अचानक एक और आवाज़ सुनाई दी, नीचे पत्थर मत फेंकना, वरना हमें चोट लग जाएगी ! थोड़ी सी हिम्मत जुटा कर पूछने पर पता चला कि वो महिलाएं पास के ही एक गाँव में रहती थी, और यहाँ अपने पशुओं के लिए घास काट रही थी ! ऐसे खाईनुमा जंगलों में कोई अवरोध ना होने के कारण ऊपर से गिरी कोई भी वस्तु बहुत तेजी से नीचे जाती है, और नीचे खड़े किसी प्राणी के लिए घातक हो सकती है ! इसलिए अगर आप कभी ऐसी जगह घूमने जाएँ तो कृपया ऊपर से नीचे कुछ ना फेंकें, ये किसी के लिए जानलेवा भी हो सकता है ! अपना ध्यान उन औरतों से हटा कर हम लोगों ने फिर से आगे बढ़ना शुरू किया, तो पीछे से वो औरतें आवाज़ लगाने लगी कि आगे मत जाओ, आगे जंगल में भालू है ! 

हमनें सोचा, इन लोगों ने क्या भालू का अलाप लगा रखा है, काहे का भालू, हम कोई बच्चे तो है नहीं कि भालू की कहानी पर यकीन कर लें ! हमनें आगे बढ़ना जारी रखा, पर ये क्या, “थोडा सा आगे बढ़ते ही हमें एहसास हुआ कि आगे तो रास्ता ही बंद था” ! पगडंडी तो वहीँ एक जगह आकर खत्म हो गई थी, और आगे तो कोई रास्ता भी नहीं दिखाई दे रहा था ! वहां खड़े होकर हम चारों तरफ देखते हुए ये जानने की कोशिश करने लगे कि शायद ये पगडंडी वाला रास्ता आगे की ओर जाता हुए दिखाई दे जाए, पर हमें सफलता नहीं मिली ! मन में विचार आया कि जहाँ आकर ये रास्ता ख़त्म हुआ है, अगर उसी दिशा में आगे बढें तो शायद जंगल में आगे जा सके ! पर उस रास्ते से आगे तो ढालनुमा पहाड़ थे, और उस पहाड़ से एक बार फिसलने का मतलब सीधे खाई में गिरना था ! खाई में गिरने के बारे में तो सोचने से ही अन्दर तक रूह काँप गई ! एक विचार ये भी आया कि दाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़कर उस पार पहुँचा जाए ताकि आगे का रास्ता मिल सके, पर फिर ये लगा कि पहाड़ी पर चढ़कर भी अगर रास्ता ना मिला तो दिक्कत और भी बढ़ जाएगी ! 

मेरा और शशांक का तो पूरा मन था कि उस ढालनुमा पहाड़ से होकर ही आगे जाया जाए, पर हितेश और विपुल ने कहा कि छोड़ों यार आगे नहीं जाते, अगर आगे और भी ज्यादा रास्ता खराब हुआ तो दिक्कत होगी ! फिर तो उन लोगों की बात मान कर थोड़ी देर वहीँ बैठ कर प्रकृति के नजारों का आनंद लेते हुए हमने ये निर्णय लिया कि वापस जाकर अब सड़क वाले रास्ते से जंगल में अन्दर जाएँगे ! थोड़ी देर वहाँ बैठने के बाद हम वापस आ गए, और अब सड़क वाले रास्ते से जॅंगल में अन्दर जाने लगे ! जंगल में थोडा सा आगे जाते ही घुमावदार रास्ते शुरू हो गए, अक्सर ऐसी जगहों पर पहाड़ों को काट कर रास्ता बनाया जाता है ! इसलिए ये रास्ते पहाड़ों के साथ-2 होते है, और इनमें काफी घुमाव होता है ! हमें जहाँ भी सड़क से हट कर कोई छोटा रास्ता दिखाई देता जोकि आगे जाकर फिर से इसी सड़क में मिल रहा हो, उस रास्ते से होते हुए आगे बढ़ जाते ! पैदल यात्रा करने में खूब मज़ा आ रहा था, और रास्ते में नज़ारे भी बहुत सुन्दर दिखाई दे रहे थे ! रास्ते में यहाँ भी खजियार की तरह बहुत बड़े-2 पेड़ टूट कर गिरे हुए थे, जिन पर बैठ कर हमने कुछ फोटो भी खिचवाई ! 

सच कहूँ, तो चारों ओर बहुत ही सुन्दर नज़ारे दिखाई दे रहे थे, इसलिए घूमते-घामते हम लोगों को कालाटोप के शीर्ष बिंदु तक पहुँचने में दो से ढाई घंटे लग गए ! पर किसी ने कहा है ना कि कई बार मंज़िल से ज़्यादा अच्छी राहें लगती है हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ! कालाटोप के शीर्ष बिंदु पर पहुँच कर पता चला कि वहां तो देखने के लिए कुछ ख़ास नहीं था, हाँ, ऊँचाई से कुछ बढ़िया नज़ारे ज़रूर दिखाई दे रहे थे ! पर ऐसे नज़ारे तो आपको किसी भी पहाड़ी से दिखाई दे जाएँगे ! खैर, हम उन नजारों का आनंद ले ही रहे थे, कि इतने में एक सज्जन पुरुष ने आकर हमसे पूछा कि यहाँ देखने के लिए क्या है ? मुझे इस बात का उत्तर नहीं मिल रहा था क्यूंकि यहाँ पर तो कुछ दुकानें ही थी जहाँ खाने पीने का सामान मिल रहा था ! इन दुकानों को देखने तो कोई यहाँ आएगा नहीं, तो हमने उन्हें जवाब दिया कि देखने की जगह तो आप रास्ते में ही छोड़ आएं है, वो प्राकृतिक नज़ारे जो आप गाडी में बैठे हुए नहीं देख पाएं होंगे !  

हम ये सोच कर मुस्कुरा रहे थे कि जो लोग यहाँ गाड़ी में बैठकर घूमने आएं है उन्होंने तो यहाँ क्या देखा होगा, वो तो बस यहाँ आकर खायेंगे-पियेंगे, और वापस जाकर यही कहेंगे कि कालाटोप वाइल्डलाइफ सेंचुरी में तो कुछ ख़ास नहीं है ! पर सच बताऊँ तो यहाँ मुझे तो शांत वातावरण, ताज़ी हवा, और प्रकृति का वो प्यार मिला, जिसे पाकर मेरा मन वापसी को ही नहीं कर रहा था ! अगर आप डलहौज़ी आए, और वाइल्डलाइफ सेंचुरी देखे बिना वापस चले गए तो समझो कि आप बस आधा डलहौज़ी ही घूम कर गए ! मैदान के जिस भाग में हम बैठे थे वहीं पास में ही एक बूढ़ा आदमी आडू बेच रहा था, हमने खाने के लिए एक किलो आडू ले लिए ! क्यूंकि फिलहाल हमारे पास यहाँ करने के लिए कुछ भी नहीं था, और डलहौज़ी वापस जाने की आखिरी बस भी शाम को 4 बजे की थी, इसलिए हमें 4 बजे से पहले ही जंगल से बाहर भी आना था ! थोड़ी देर वहाँ बैठने के बाद ही हम लोगों ने वापसी की राह पकड़ ली, वापस आते हुए भी हमने खूब मस्ती की ! 

वापसी के दौरान, एक बड़े पत्थर पर बैठ कर हम लोग थोडा आराम करने लगे, तो गलती से हमारी भरी कोल्ड-ड्रिंक की बोतल पत्थर से सरक कर नीचे चली गई ! ऊपर से देखने पर ज्यादा तो अंदाज़ा नहीं लग रहा था पर पत्थर के साइड से देखने पर हमें लगा की नीचे उतरा जा सकता है ! बस फिर क्या था, मैं और शशांक अपनी कोल्ड-ड्रिंक वापस लाने के लिए नीचे उतर गए ! ज्यादा तो नहीं पर हाँ 50-60 फुट नीचे तो था ही जहाँ हम अपनी कोल्ड-ड्रिंक लाने के लिए गए थे ! पर कुछ भी कहो, रोमांच का अपना एक अलग ही मज़ा है और इसे शब्दों में बयाँ करना थोड़ा मुश्किल होता है ! इसे तो बस महसूस किया जा सकता है ! वापस ऊपर पहुँच कर हमें एक स्थानीय लड़का मिला जो जॅंगल में से लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था, हमने उसे पीने के लिए कोल्ड-ड्रिंक दी, और बदले में उसने हमें लकड़ी काटने का अपना औजार दिखाया, जिसका इस्तेमाल हमने फोटो खिचवानें में किया ! 

दस-पंद्रह मिनट वहां बैठने के बाद हम लोग बाहर बस स्टॉप पर आ गए, जहाँ थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद ही हमें गाँधी चौक जाने के लिए बस मिल गई ! लगभग पौने घंटे की यात्रा के बाद हम लोग गाँधी चौक पहुँच गए ! बस से नीचे उतरने के बाद हम लोग सुभाष चौक की तरफ पैदल ही चल दिए ! गाँधी चौक से सुभाष चौक जाने के दो रास्ते है एक मार्ग तो वो जिस पर से सारी बसें आती है और दूसरा रास्ता हमारे होटल के सामने से होकर जाता था ! सुभाष चौक जाते हुए हमने अपने कमरे में जाकर गरम कपड़े ले लिए, ताकि घूमते हुए अगर शाम को देरी भी हो जाए तो ठंड से खुद को बचाया जा सके ! सुभाष चौक का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नाम पर पड़ा है, स्मृति चिन्ह के लिए यहाँ उनकी प्रतिमा भी लगी है ! प्रतिमा के दाईं तरफ एक चिड़ियाघर है, और चिड़ियाघर के पीछे ही एक चर्च है, चिड़ियाघर होते हुए हम लोग प्रार्थना करने के लिए चर्च में चले गए ! ये चर्च सुभाष चौक और मार्किट से काफी उंचाई पर है इसलिए यहाँ से देखने पर काफी दूर तक की इमारतें दिखाई देती है ! 

अँधेरा होने पर तो चर्च से देखने पर सारा शहर कृत्रिम रोशनी में और भी सुन्दर लगता है ! यहाँ खड़े होकर हम प्राचीन समय के जीवन को महसूस करने की कोशिश कर रहे थे ! आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि डलहौज़ी में दो चर्च है, सेंट जोन्स चर्च तो गाँधी चौक के पास है, और दूसरा ये सेंट फ्रांसिस चर्च यहाँ सुभाष चौक के पास चिड़ियाघर के पीछे है ! चर्च में पंद्रह-बीस मिनट प्रार्थना करने के बाद हम लोग बाहर आ गए, और नीचे डलहौज़ी बस स्टैंड की तरफ चल दिए ! चर्च से डलहौज़ी का बस स्टैंड एक किलोमीटर की दूरी पर है, और यहाँ आने का रास्ता बहुत ही ढलानदार है ! बस स्टैंड पर पूछ-ताछ के दौरान हमें पता चला कि डलहौज़ी से धर्मशाला जाने के लिए बहुत सारी सरकारी और प्राइवेट बसें चलती है, और पहली बस यहाँ से सुबह सात बजे चलती है ! हम लोगों ने इस पहली बस से ही धर्मशाला जाने का निश्चय किया ! बस स्टैंड के पीछे ही डलहौज़ी क्लब है, बस स्टैंड से पूछताछ करने के बाद हम टहलते हुए इस क्लब में पहुँच गए ! 

क्लब को अन्दर से एक म्यूजियम का आकार देने की कोशिश की गई है, पूछ-ताछ के दौरान पता चला कि ये अंग्रेजो के समय का क्लब है ! अंग्रेज अफसर इस क्लब में अलग-2 आयोजन किया करते थे, इस क्लब के अन्दर दीवारों पर कुछ दुर्लभ तस्वीरें और मूर्तियाँ भी सजाई गई थी ! क्लब में काफी देर घूमने के बाद हमने बस स्टैंड के पास ही एक होटल में रात का खाना खाया, और वापस अपने होटल की तरफ चल दिए ! क्यूंकि हमारी बस सुबह सात बजे की थी इसलिए हमने होटल पहुँच कर हमने अपना सामान रात को ही पैक कर लिया ! होटल का बिल भी हमने रात को भर दिया ताकि सुबह कोई परेशानी ना हो ! उसके बाद टेलीविज़न देखते हुए पता ही नहीं चला कि कब नींद आ गई ! सुबह समय से उठे और अपना-2 बैग लेकर डलहौज़ी बस स्टैंड की तरफ चल दिए जहाँ धर्मशाला जाने की बस हमारा इंतज़ार कर रही थी !

kalatop entry
सूचना दर्शाता एक बोर्ड (A sign board in Kalatop Wildlife Sanctuary, Dalhousie)

kalatop distance
दूरी दर्शाता एक बोर्ड
kalatop map

kalatop trek
पैदल जाने वाला मार्ग (A trail to Kalatop Wildlife Sanctuary, Dalhousie)
trek in kalatop
A walk to Kalatop Wildlife Sanctuary
kalatop forest
जंगल में सुनसान मार्ग (A view from trail in Kalatop)
forest kalatop

kalatop valley
जंगल में सुनसान मार्ग
kalatop
Into the Wild
fog in kalatop
A view from the Trail
रास्ते में एक जगह विश्राम करते हुए
kalatop car
जंगल में जाने का पक्का मार्ग (Way to Kalatop Wildlife Sanctuary)
इसी पत्थर से केम्पा की बोतल गिरी थी
पहाड़ी के नीचे से केम्पा की बोतल लाता हुआ शशांक
kalatop jungle

Is it Man Vs Wild
शशांक और विपुल को कुछ दिखाता हुआ हितेश

kalatop trek
जंगल में उँचे-नीचे रास्ते (A view on the way to Kalatop)
एक विशाल पेड़ की विशाल जड़
trees in kalatop

walk in kalatop
Trail to Kalatop Wildlife Sanctuary

kalatop forest
ये रास्ता अंदर जंगल में जा रहा था

kalatop hut
कालाटॉप का मुख्य प्रांगण (A glimpse of Forest Rest House)


dalhousie church
चर्च से दिखाई देता सुभाष चौक (A view from Church in Dalhousie)
church in dalhousie
चर्च में विपुल, शशांक और हितेश
dalhousie club
ड़लहौजी क्लब के अंदर शशांक (A view of Dalhousie Club)
dalhousie sbi
भारतीय स्टेट बैंक के अधिकारियों के सरकारी मकान
dalhousie evening




क्यों जाएँ (Why to go Dalhousie): अगर आप दिल्ली की गर्मी और भीड़-भाड़ से दूर सुकून के कुछ पल पहाड़ों पर बिताना चाहते है तो आप डलहौजी का रुख़ कर सकते है ! यहाँ घूमने के लिए भी कई जगहें है, जिसमें झरने, चर्च, पहाड़, मंदिर और वन्य जीव उद्यान शामिल है !

कब जाएँ (Best time to go Dalhousie): वैसे तो आप साल के किसी भी महीने में घूमने के लिए 
डलहौजी जा सकते है लेकिन झरनों में नहाना हो तो बारिश से बढ़िया कोई मौसम हो ही नहीं सकता ! वैसे अगर बर्फ देखने का मन हो तो आप यहाँ दिसंबर-जनवरी में आइए, बढ़िया बर्फ़बारी देखने को मिलेगी !

कैसे जाएँ (How to reach Dalhousie): दिल्ली से 
डलहौजी की दूरी लगभग 559 किलोमीटर है ! यहाँ जाने का सबसे बढ़िया साधन रेल मार्ग है दिल्ली से पठानकोट तक ट्रेन से जाइए, जम्मू जाने वाली हर ट्रेन पठानकोट होकर ही जाती है ! पठानकोट से डलहौजी की दूरी महज 83 किलोमीटर है जिसे आप बस या टैक्सी से तय कर सकते है, इस सफ़र में आपके ढाई से तीन घंटे लगेंगे ! अगर आप सड़क मार्ग से जाना चाहे तो दिल्ली से डलहौजी (चम्बा) के लिए हिमाचल टूरिज़्म की वोल्वो और हिमाचल परिवहन की सामान्य बसें भी चलती है ! आप निजी गाड़ी से भी डलहौजी जा सकते है जिसमें आपको दिल्ली से डलहौजी पहुँचने में 10-11 घंटे का समय लगेगा !

कहाँ रुके (Where to stay in Dalhousie): 
डलहौजी में रुकने के लिए बहुत होटल है आपको अपने बजट के अनुसार 700 रुपए से शुरू होकर 3000 रुपए तक के होटल मिल जाएँगे ! मई-जून के महीनों में यहाँ ज़्यादा भीड़ रहती है इसलिए अगर इन महीनों में जाना हो तो होटल का अग्रिम आरक्षण करवाकर ही जाएँ !

क्या देखें (Places to see in Dalhousie): 
डलहौजी में देखने के लिए वैसे तो बहुत जगहें है लेकिन यहाँ के मुख्य आकर्षण पॅंचपुला वॉटरफॉल, सातधारा वॉटरफॉल, ख़ज़ियार, कलाटॉप वाइल्डलाइफ सेंचुरी, सेंट जॉन चर्च, डायन कुंड, और माल रोड है ! इसके अलावा रोमांच के शौकीन लोगों के लिए यहाँ से थोड़ी दूर चम्बा में रिवर राफ्टिंग, राक क्लाइंबिंग, और ट्रेकिंग के विकल्प भी है !

अगले भाग में जारी...

डलहौजी - धर्मशाला यात्रा
  1. दिल्ली से डलहौजी की रेल यात्रा (A Train Trip to Dalhousie)
  2. पंज-पुला की बारिश में एक शाम (An Evening in Panch Pula)
  3. खजियार – देश में विदेश का एहसास (Natural Beauty of Khajjar)
  4. कालाटोप के जंगलों में दोस्तों संग बिताया एक दिन (A Walk in Kalatop Wildlife Sanctuary)
  5. डलहौज़ी से धर्मशाला की बस यात्रा (A Road Trip to Dharmshala)
  6. दोस्तों संग त्रिउंड में बिताया एक दिन (An Awesome Trek to Triund)
  7. मोनेस्ट्री में बिताए सुकून के कुछ पल (A Day in Mcleodganj Monastery)
  8. हिमालयन वाटर फाल - एक अनछुआ झरना (Untouched Himachal – Himalyan Water Fall)
  9. पठानकोट से दिल्ली की रेल यात्रा (A Journey from Pathankot to Delhi)
Pradeep Chauhan

घूमने का शौक आख़िर किसे नहीं होता, अक्सर लोग छुट्टियाँ मिलते ही कहीं ना कहीं घूमने जाने का विचार बनाने लगते है ! पर कुछ लोग समय के अभाव में तो कुछ लोग जानकारी के अभाव में बहुत सी अनछूई जगहें देखने से वंचित रह जाते है ! एक बार घूमते हुए ऐसे ही मन में विचार आया कि क्यूँ ना मैं अपने यात्रा अनुभव लोगों से साझा करूँ ! बस उसी दिन से अपने यात्रा विवरण को शब्दों के माध्यम से सहेजने में लगा हूँ ! घूमने जाने की इच्छा तो हमेशा रहती है, इसलिए अपनी व्यस्त ज़िंदगी से जैसे भी बन पड़ता है थोड़ा समय निकाल कर कहीं घूमने चला जाता हूँ ! फिलहाल मैं गुड़गाँव में एक निजी कंपनी में कार्यरत हूँ !

4 Comments

  1. क्या बात है !.....बेहद खूबसूरत चित्रात्मक वर्णन....
    समस्त ब्लॉगर मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@यहाँ पधारिये

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  2. मैंने कालाटोप नहीं देखा। अगली बात जाउगी तो जरूर देखूँगी

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    1. यहाँ लूटेरा सहित कई फिल्मों की शूटिंग भी हुई है !

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